Angur ki kheti Kaise Kare (अंगूर की खेती कैसे करे)

भारत में अंगूर की खेती महाराष्ट्र, आन्ध्रप्रदेश, कर्नाटक, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान एवं मध्यप्रदेश में होती है। इन राज्यों में अंगूर विशेष तकनीकी कुशलता से उगाकर इसकी व्यवसायिक खेती की जाती हैं। अंगूर में प्रति इकाई क्षेत्र, अधिक उपज प्राप्त होती है एवं फलों की कीमत अच्छी मिलने के कारण अंगूर सबसे अधिक मुनाफा देने वाली फसल हैं।

अंगूर के लिए जलवायु

अंगूरों को आमतौर पर अपने विकास और फलने की अवधि के दौरान गर्म और शुष्क जलवायु की आवश्यकता होती है। यह उन क्षेत्रों में सफलतापूर्वक उगाया जाता है जहां तापमान रेंज 15-40 डिग्री सेल्सियस हो।

फलों की ग्रोथ और विकास के दौरान 40 डिग्री सेल्सियस से अधिक तापमान होने पर यह बेरी साईज और फल की स्थिरता का कम करता है। अग्रणी छंटाई के दौरान 15 डिग्री सेल्सियस के कम तापमान होने पर कलियां टूट जाती है जिससे फसल खराब हो जाती है I

कलियों की परिपूर्णता प्रकाश से प्रभावित है। अधिकतम ग्रोथ के लिए 2400 फीट हल्की तीव्रता वाली कैन्डल आवश्यक है। हालांकि, सक्रिय ग्रोथ स्टेज (छंटाई के बाद 45-75 दिन) और फल कलियों के फारमेशन के दौरान कम रोशनी की तीव्रता फसल पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है।


यह सबसे सफलतापूर्वक 200-250m से ऊपर m.s. ऊंचाई रेंज में उगाया जाता है। वह क्षेत्र जहां पूरे वर्ष में वार्षिक वर्षा 900mm से अधिक न हो, उस क्षेत्र को अच्छा माना गया है। हालांकि, फलावरिंग और फ्रट राइपनिंग के दौरान बारिश होना अनुकूल नहीं माना जाता है क्योंकि इससे कोमल फफूदी रोग फैलता है।

उच्च वायुमंडलीय आर्द्रता वनस्पति विकास और फलने के दौरान हानिकारक है। उच्च आर्द्रता की स्थिति में बेलों का वनस्पति विकास ओजपूर्ण होता है जो फल आकार और गुणवत्ता को प्रभावित करता है। इसी प्रकार, अग्रणी छंटाई के बाद 30-110 दिनों के दौरान उच्च आर्द्रता फंगल रोग को बढ़ाने में अनुकूल है।

अंगूर की खेती के लिए मिट्टी

अंगूरों की खेती विभिन्न प्रकार की मिट्टी अर्थात रेतीले लोमस, रेतीले क्ले लोमस, लाल रेतीली मिट्टी , हल्की काली मिट्टी और लाल लोमस पर की जा सकती है। मिट्टी अच्छी तरह से शुष्क होनी चाहिए, अच्छा पानी रोकने की क्षमता हो और किसी भी हाई पैन से मुक्त हो या उच्च 90 सेंमी. में प्रबल लेयर की हो तथा कम से कम 6.5 एम से नीचे वाटर टेबल की हो।

अंगूरों को सफलतापूर्वक मिट्टी की विस्तृत रेज पीएच (4.0-9.5) से ज्यादा होने पर भी उगाया जा सकता है, हालांकि, मिट्टी की 6.5-8.0 पीएच रेंज को ही आर्दश माना गया है।

अंगूर की किस्मों का फैसला करना

अंगूर की किस्म का फैसला करना कोई आसान चीज नहीं है। चुनी जाने वाली उगाने की विधि, हमारे क्षेत्र में उगने वाली अंगूर की किस्मों पर विचार करना बहुत महत्वपूर्ण होता है और साथ ही आपको यह भी विचार करना पड़ता है कि हमारी चुनी गयी किस्म को अच्छे दाम पर बेचा जा सकता है या नहीं।

अंगूर का खेत लगाने की दो विधियां हैं: ऑटोजेनस पौधे उगाना या ग्राफ्टेड कटिंग लगाना। किसी भी मामले में, प्रत्येक किस्म की अपनी विशेष गुणवत्ता विशेषताएं होती हैं, जो विशिष्ट जलवायु और मिट्टी की आवश्यकताओं के अंतर्गत जाहिर होती हैं, जैसे पीएच या ईसी स्तर, पानी और पोषण की आवश्यकताएं, तापमान या धूप। इसलिए आपका चुनाव और फैसला सावधानी और तथ्य पर आधारित होना चाहिए।

ऑटोजेनस अंगूर की बेल उगाना।

1850-60 के बाद से, ज्यादातर यूरोपीय अंगूर-उत्पादकों ने धीरे-धीरे ऑटोजेनस अंगूर के पौधे लगाने बंद कर दिए थे। ऐसा एक भयानक दुश्मन के आने के कारण हुआ था, जो उस समय यूरोप में अज्ञात था।

इस दुश्मन को फिलॉक्सेरा (फिलॉक्सेरा वेस्टाट्रिक्स) के नाम से जाना जाता है और यह मिट्टी में पाया जाने वाला एफिड होता है जो बेलों के लिए बेहद हानिकारक होता है। ऐसा माना जाता है कि एफिड अमेरिका से आया था, और इस कीट के साथ लंबे समय तक रहने के कारण अमेरिकी अंगूर की बेलों ने पहले ही इसके लिए प्रतिरक्षा विकसित कर ली थी।

उससे पहले, मुख्य फसल विटिस विनिफेरा प्रजातियों से संबंधित थी, जिनमें से ज्यादातर एफिड के प्रति संवेदनशील होते हैं। हालाँकि, जिन क्षेत्रों में फिलॉक्सेरा की समस्या सामने नहीं आई थी, वहां कुछ छोटे किसान अभी भी ऑटोजेनस पौधे लगाना पसंद करते हैं।

ग्राफ्टेड अंगूर की कटिंग उगाना।

जैसा कि हमने ऊपर बताया है, 1850 के दौरान, यूरोपीय उत्पादकों ने फिलॉक्सेरा के हमले के समाधान की तलाश शुरू की। इसका समाधान वहीं से आया जहाँ से हमला आया था, यानी अमेरिका से।अमेरिका की स्थानीय अंगूर की किस्मों ने लंबे समय तक इस कीट के साथ सहजीवन की वजह से इनके खिलाफ प्रतिरक्षा विकसित कर ली थी।

इसलिए, उन्होंने अमेरिकी रूटस्टॉक पर अपनी पारंपरिक विटिस विनिफेरा की किस्मों को ग्राफ्ट करना शुरू किया। ग्राफ्टिंग आमतौर पर इस्तेमाल की जाने वाली एक तकनीक है जिसमें हम दो अलग-अलग पौधों के हिस्सों को एक साथ जोड़ देते हैं ताकि वे एक साथ एक ही पौधे के रूप में विकसित हो सकें।

पहले पौधे के ऊपरी हिस्से को साइअन कहा जाता है जो दूसरे पौधे की जड़ प्रणाली पर बढ़ता है, जिसे रूटस्टॉक कहा जाता है। अंत में, हमारे पास एक पौधा होता है जो अपने विभिन्न घटकों के सभी लाभों को आपस में जोड़ता है।

वाइन बनाने वाली किस्में

वाइन उत्पादन के अपने लंबे इतिहास के कारण, इस श्रेणी में ज्यादातर यूरोपीय किस्मों को शामिल किया जाता है। हालाँकि, कुछ अमेरिकी किस्में भी महत्वपूर्ण हैं। आमतौर पर वाइन बनाने के लिए प्रयोग की जाने वाली अंगूर की कुछ किस्में हैं:

  • कैबरनेट फ्रेंक
  • कैबरनेट सॉविनन
  • माल्बेक
  • मेरोट
  • पिनोट नोइर
  • सीराह
  • कॉनकॉर्ड (लाल किस्में)
  • शारडोने
  • पिनोट ब्लैंक
  • पिनोट ग्रीस
  • सेमिलन
  • ग्यूवेर्स्ट्रामाइनर
  • कैटावबा
  • डेलावेयर (व्हाइट वाइन)

करंट उत्पादन वाली किस्में:-

सबसे प्रसिद्ध किस्मों में सुल्तानिना और कोरिंथ शामिल हैं।

सीधे खाने के लिए प्रयोग की जाने वाली अंगूर की किस्में:

  • कार्डिनल
  • पेरीलेट
  • विक्टोरिया
  • रिबियर और अन्य।

आप अपनी चुनी गयी बेल की किस्म के बारे में टिप्पणी या तस्वीर डालकर इस लेख को ज्यादा बेहतर बना सकते हैं।

किस्में इस प्रकार है, जैसे-

  • ब्युटी सीडलेस
  • परलेट
  • पूसा सीडलेस
  • पूसा उर्वशी
  • पूसा नवरंग
  • फ्लैट सीडलेस।

प्रवर्धन तकनीक

अंगूर की खेती हेतु प्रवर्धन मुख्यतः कटिंग कलम द्वारा होता है। जनवरी माह में काट छाँट से निकली टहनियों से कलमे ली जाती हैं। कलमे सदैव स्वस्थ और परिपक्व टहनियों से ही ली जाने चाहिए। सामान्यतः 4 से 6 गांठों वाली 25 से 45 सैंटीमीटर लम्बी कलमें ली जाती हैं।

कलम बनाते समय यह ध्यान रखें कि कलम का निचे का कट गांठ के ठीक नीचे होना चाहिए और ऊपर का कट तिरछा होना चाहिए। इन कलमों को अच्छी प्रकार से तैयार की गयी तथा जमीन की सतह से ऊँची क्यारियों में लगा देते हैं। एक वर्ष पुरानी जड़युक्त कलमों को जनवरी माह में नर्सरी से निकल कर खेत में रोपित कर देते हैं।

गड्ढ़े की तैयारी

अंगूर की बागवानी के लिए करीब 50 x 50 x 50 सेंटीमीटर आकार के गड्ढे खोदकर उसमें सड़ी गोबर की खाद (15 किलोग्राम), 250 ग्राम नीम की खली, 50 ग्राम फॉलीडाल कीटनाशक चूर्ण, 200 ग्राम सुपर फॉस्फेट व 100 ग्राम पोटेशियम सल्फेट प्रति गड्ढे मिलाकर भर दें। पौध लगाने के करीब 15 दिन पूर्व इन गड्ढ़ों में पानी भर दें ताकि वे तैयार हो जाएं। जनवरी माह में इन गड्ढों में 1 साल पुरानी जड़वाली कलमों को रोप दें। पौध लगाने के बाद तुरन्त सिंचाई करना आवश्यक है।

खाद और उर्वरक

अंगूर की खेती को काफी मात्र में पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है। अतः खेत की भूमि कि उर्वरता बनाये रखने के लिए और लगातार अच्छी गुणवत्ता वाली फसल लेने के लिए, यह आवश्यक है, की खाद और उर्वरकों द्वारा पोषक तत्वों की पूर्ति की जाये।

अंगूर की आदर्श विधि 3 x 3 मीटर की दुरी पर लगाई गयी अंगूर की 5 वर्ष या आगे के वर्षों हेतु बेल में लगभग 600 ग्राम नाइट्रोजन, 750 ग्राम म्यूरेट ऑफ पोटाश, 650 ग्राम पोटेशियम सल्फेट और 60 से 70 किलोग्राम गोबर की खाद की आवश्यकता होती है।

छंटाई के तुंरत बाद जनवरी के अंतिम सप्ताह में नाइट्रोजन और पोटाश की आधी मात्रा व फास्फोरस की पूरी मात्रा डाल देनी चाहिए। शेष मात्रा फल लगने के बाद दें। खाद और उर्वरकों को अच्छी तरह मिट्टी में मिलाने के बाद तुंरत सिंचाई करें। खाद को मुख्य तने से दूर 20 से 25 सैंटीमीटर की दुरी से डालें।

लता की आयु (वर्ष) गोबर की खाद (किलोग्राम) नाइट्रोजन (ग्राम) फास्फेट (ग्राम) पोटाश (ग्राम)
पहला 15 150 125 150
दूसरा 30 300 250 300
तीसरा 45 400 375 450
चौथा 60 500 500 650
पाचवां व आगे 70 600 650 750

रोग एवं रोकथाम

उत्तरी भारत में अंगूर की बेलों पर बरसात के आरम्भ होते ही विशेषकर एन्ट्रेक्नोज, सफेद चूर्णिल रोग तथा सरकोस्पोरा पत्ती धब्बा बीमारियों को प्रकोप होता है। एन्छेक्नोज का आक्रमण बरसात व गर्मी (जून से जुलाई) के साथ-साथ आरम्भ हो जाता है तथा यह बहुत तेजी से फैलता है। इससे पत्तियों पर गहरे भूरे रंग के धब्बे पड़ जाते हैं, जो बीच में दबे होते हैं।

धब्बे फैलकर टहनियों पर आ जाते हैं। सरकोस्पोरा पत्ती धब्बा के धब्बे गोल और इनका रंग सिरों पर लाल-भूरा व बीच में तूडें जैसा होता है। एन्ट्रेक्नोज एवं सरकोस्पोरा के आक्रमण से पत्तियां सूखकर गिर जाती हैं और टहनियां भी पूरी तरह से सूख जाती हैं। कभी-कभी तो पूरी बेल ही सूख जाती है।

रोकथाम

एन्छेक्नोज एवं सरकोस्पोरा पत्ती धब्बा की बीमारियों की रोकथाम के लिए ब्लाईटाक्स या फाइटालोन का 0.3 प्रतिशत का छिड़काव अर्थात 750 ग्राम 250 लीटर पानी में प्रति एकड़ की मात्रा से एक बार जून के अन्तिम सप्ताह में करें और 15 दिनों के अन्तराल पर सितम्बर तक करते रहें।

एन्छेक्नोज हेतु कॉपर ऑक्सीक्लोराइड (0.2 प्रतिशत) या बाविस्टीन (0.2 प्रतिशत) का छिड़काव करें। बादल छाये रहने पर 7 से 10 दिनों के अंतराल पर छिड़काव जरूरी है।

सफेद चूर्णिल रोग शुष्क जलवायु में देखा जाता है। इसके नियंत्रण के लिए 0.2 प्रतिशत घुलनशील गंधक या 0.1 प्रतिशत कैराथेन या 3 ग्राम प्रति लीटर पानी बाविस्टीन का छिड़काव दो बार 10 से 15 दिन के अंतराल पर करना चाहिए।

कीट एवं रोकथाम

पत्ते खाने वाली चैफर बीटल अंगूर की बेलों को हानि पहुंचाने वाले कीटों में सबसे अधिक खतरनाक है। चैफर बीटल दिन के समय छिपी रहती है तथा रात में पत्तियां खाकर छलनी कर देती है। बालों वाली सुंडियां मुख्यत: नई बेलों की पत्तियों को ही खाती हैं।

इनके साथ-साथ स्केल कीट, जो सफेद रंग का बहुत छोटा एवं पतला कीड़ा होता है, टहनियों शाखाओं तथा तने पर चिपका रहता है और रस चूसकर बेलों को बिलकुल सुखा देता है| इनके अतिरिक्त एक बहुत छोटा कीट थ्रिप्स है, जोकि पत्तियों की निचली सतह पर रहता है। थ्रिप्स पत्तियों का रस चूसता है। इससे पत्तियों के किनारे मुड़ जाते हैं और वे पीली पड़कर गिर जाती हैं।

रोकथाम

उपरोक्त कीटों के प्रकोप से बेलों को बचाने के लिए बी एच सी (10 प्रतिशत) का धूड़ा 38 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से अथवा फोलिथियोन या मैलाथियोन या डायाजिनान का 0.05 प्रतिशत से 0.1 प्रतिशत का छिड़काव जून के अन्तिम सप्ताह में करना चाहिए और बाद में छिड़काव 15 दिनों के अंतराल पर जुलाई से सितम्बर तक करते रहें। इसके अतिरिक्त स्केल कीट के प्रकोप से बेलों को बचाने के लिए छंटाई करने के तुरन्त बाद 0.1 प्रतिशत वाले डायाजिनान का एक छिड़काव करना आवश्यक है।

अन्य नाशीजीव अंगूर में पत्ती लपेटक इल्लियां काफी नुकसान पहुंचाती है। इसके नियंत्रण हेतु 2 मिलीलीटर मैलाथियान या डाइमेथोएट प्रति लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव किया जा सकता है। दीमक से बचने के लिए 15 से 20 दिन के अंतराल पर 5 प्रतिशत क्लोरोपाइरीफोस घोल से सिंचाई करके बेलों को बचाया जा सकता है।

जल निकास

अंगूर की बेलों में पानी अधिक समय तक खड़ा रहना इसकी बागवानी के लिए बहुत हानिकारक होता है। पानी के लगातार खड़ा रहने से इसकी जड़ें गल जाती हैं और बेलें सूख जाती हैं| इसलिए बरसात के फालतू पानी को बाहर निकालने के लिए जून माह में जल-निकास नालियां तैयारी करनी चाहिए।

तुड़ाई

अंगूर में गुच्छों के पूर्णरूप से पक जाने पर ही तुड़ाई करनी चाहिए। जब दाने खाने योग्य या उनकी बाह्य सतह मुलायम हो जाए, तब तोड़ा जाना चाहिए। फलों की तुड़ाई प्रात: या सायंकाल में करनी चाहिए, ताकि तुड़ाई के बाद उन्हें ग्रेड कर पैकिंग की जा सके दिन में तोड़े फलों को दो घण्टे छाया में छोड़ना चाहिए।

पैदावार

भारत में अंगूर की औसत पैदावार 30 टन प्रति हेक्टेयर है, जो विश्व में सर्वाधिक है । वैसे तो पैदावार किस्म, मिट्टी और जलवायु पर निर्भर होती है, लेकिन उपरोक्त वैज्ञानिक तकनीक से खेती करने पर एक पूर्ण विकसित बाग से अंगूर की 30 से 50 टन पैदावार प्राप्त हो जाती है ।

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