Karele Ki Kheti Kaise Kare (करेले की खेती कैसे करे)

करेले की सब्जी भारत में लगभग सभी जगहों पर लोकप्रिय फसल मानी जाती है। इसकी सब्जी को ज्यादा तेल में रखकर आचार की तरह उपयोग में लिया जा सकते हैं।

करेले का खाने में सब्जी के अलावा और भी कई तरह से इस्तेमाल किया जाता है। कुछ लोग इसको सुखाकर संरक्षित करते हैं, तो कुछ इसका जूस निकालना पसंद करते हैं. करेले के पौधे को एक ओषधिय पौधा कहा जाता है।

करेले के जूस का इस्तेमाल पेट संबंधित बीमारियों में किया जाता है। करेले का इस्तेमाल मधुमेह के उपचार में भी किया जाता है। इसके अलावा करेले के इस्तेमाल से और भी कई तरह की बिमारियों से छुटकारा मिलता है ।

उपयुक्त मिट्टी:-

करेले की खेती के लिए दोमट मिट्टी सबसे उपयुक्त मानी जाती है । लेकिन इसकी खेती और भी कई तरह की मिट्टी में की जा सकती है। इसके लिए मिट्टी की उर्वरक क्षमता अच्छी होनी चाहिए और जमीन में जल भराव की समस्या नही होनी चाहिए ।

क्योंकि जलभराव की स्थिति में पौधे में कई तरह के रोग लग जाते हैं। इसकी खेती के लिए जमीन का पी.एच. मान 6 से 8 तक होना चाहिए।

जलवायु और तापमान:-

करेले की खेती के लिए गर्म और आद्र जलवायु उपयुक्त होती है। इसकी खेती से अच्छी पैदावार लेने के लिए हल्का गर्म मौसम अच्छा होता है। जबकि इसका पौधा सर्दी के मौसम में भी आसानी से रह सकता है।

लेकिन सर्दियों में पड़ने वाले पाले की वजह से इसके फूल और फलों को नुक्सान पहुँचता है। करेले के पौधे पर फूल खिलते वक्त बारिश नही होनी चाहिए। क्योंकि फूल खिलने के दौरान होने वाली बारिश इसकी पैदावार पर असर डालती है।

बारिश के होने से पौधे पर खिलने वाले फूल खराब हो जाते हैं। करेले की खेती के लिए सामान्य तापमान उपयुक्त होता है । इसके बीज को अंकुरित होने के लिए लगभग 20 डिग्री तापमान की जरूरत होती है।

करेले की मुख्य उन्नत किस्में:-

करेले की खेती के लिए कई तरह की किस्में मौजूद है। जिनसे बड़ी मात्रा में करेले पैदा कर कम समय में अच्छा मुनाफा कमाया जा सकता है। कुछ किस्में ऐसी भी हैं जिन्हें अलग-अलग तरह की मिट्टी और जलवायु में उगाने के लिए तैयार किया गया है। इस कारण बीज लेने से पहले बीज के बारें में अच्छे से जानकारी हासिल कर उसे खेत में उगाना चाहिए।

1) कोयम्बटूर लौग :-

करेले की इस किस्म की पैदावार दक्षिण भारत में की जाती है। इस किस्म के पौधों को फैलाव के लिए ज्यादा दूरी की जरूरत होती है। और इसके पौधे पर फल भी ज्यादा लगते हैं। एक एकड़ में उगाये गए इसके पौधों से 40 क्विंटल तक पैदावार आसानी से हो जाती है। जिनको पकने में 65 से 80 दिन का वक्त लगता है।

2) कल्याणपुर बारहमासी :-

चंद्रशेखर आजाद कृषि विश्वविद्यालय ने इस किस्म को सालभर फसल देने के लिया तैयार किया गया है। इस किस्म को गर्मी और वर्षा दोनों ही मौसम में उगाया जा सकता है. जो 60 से 70 दिन में फल देना आरम्भ कर देती है. इसके फलों का रंग गहरा हरा होता है। एक एकड़ में एक बार में इसकी पैदावार 60 से 65 क्विंटल तक हो जाती है।

3) हिसार सेलेक्शन :-

करेले की ये किस्म ज्यादातर उत्तर भारत में उगाई जाती है। जिनमे पंजाब और हरियाणा में इसको सबसे ज्यादा पसंद किया जाता है। इसके पौधे ज्यादा दूरी में नही फैलते। इस किस्म की एक एकड़ में पैदावार 40 क्विंटल के आसपास होती है।

4) अर्का हरित:-

करेले की इस किस्म को गर्मी और बारिश दोनों मौसम के लिए तैयार किया गया है। इस किस्म के फल 70 से 80 दिन बाद पैदावार देना शुरू कर देते हैं। इसके फलों के अंदर बीज बहुत कम मात्रा में मिलते हैं। इस किस्म की प्रति एकड़ पैदावार 40 से 50 क्विंटल तक हो जाती है ।

5) पूसा विशेष:-

करेले की इस किस्म को जल्दी फल देने के लिए तैयार किया गया है। इस किस्म के पौधे लगभग 55 से 60 दिन में फल देना आरम्भ कर देते हैं। इस किस्म के पौधों पर लगने वाले फल लम्बाई में कम और मोटे होते हैं। जिनका रंग हरा होता है। इस किस्म की प्रति एकड़ पैदावार 60 क्विंटल से ज्यादा होती है।

इनके अलावा और भी कई किस्में हैं जिन्हें अलग अलग जगहों पर कम समय में ज्यादा पैदावार लेने के लिए उगाया जाता है। जिनमें अर्का हरित, प्रिया को- 1, एस डी यू- 1, कल्यानपुर सोना,पूसा संकर- 1, पूसा हाइब्रिड- 2, पूसा औषधि, पूसा दो मौसमी, पंजाब करेला- 1, पंजाब- 14, सोलन हरा और सोलन सफेद जैसी कई किस्में शामिल हैं।

खेत की जुताई:-

करेले की खेती के लिए खेत की पहली जुताई 20 दिन पहले पलाऊ लगाकर कर देनी चाहिए ।उसके बाद कुछ टाइम तक उसे खुला छोड़ दें। खुला छोड़ने के बाद फिर से कल्टीवेटर के माध्यम से खेत की फिर से दो या तीन तिरछी जुताई करें। उसके बाद खेत में पानी छोड़ दें और खेत की फिर से जुताई कर उसे समतल बना दें।

खेत को समतल बनाने से बारिश के टाइम होने वाली जल भराव वाली समस्या का सामना नही करना पड़ता। खेत को समतल बनाने के बाद 4 से 5 फिट की दूरी बनाते हुए खेत में एक से सवा फिट चोडी नालियाँ बना दे, जिनको क्यारियों के रूप में बांट लें।

बीज लगाने का टाइम और तरीका

करेले के पौधे की रोपाई दो तरीके से की जाती है। जिसमें इसे बीज और पौध के रूप में उगाया जाता है । पौध के रूप में उगाने के लिए पौध को लगभग एक महीने पहले नर्सरी में तैयार किया जाता है। जिन्हें पॉलिथीन या कप ट्रे में लगाकर तैयार किया जाता है।

पौधे के तैयार होने के बाद उसे खेत में 3 से 4 फिट की दूरी पर बनाई गई नालियों या गड्डों में लगा देते हैं। करेले की खेती मुख्य रूप से ग्रीष्म काल में की जाती है। लेकिन अब इसकी पैदावार लगभग पूरे साल की जाती है. इस कारण अलग अलग स्थानों पर इसे अलग अलग टाइम पर उगाया जाता है।

मैदानी क्षेत्र में सिंचाई वाले स्थानों पर इसे फरवरी – मार्च और असिंचित जगहों पर मई जून में उगाना चाहिए। असिंचित जगहों पर मई जून के टाइम में उगाने की वजह से पौधों की सिंचाई करने की ज्यादा जरूरत नही होती। क्योंकि इस वक्त बारिश का मौसम होता है।

मध्य और पठारी ऊँचे स्थानों पर इसे अप्रैल माह में उगाना उपयुक्त होता हैं। जहाँ बारिश के मौसम में इसकी पैदावार की जाती हैं, वहां इसे पहली बारिश के साथ ही उगाना अच्छा होता है. एक एकड़ में करेले के 3 से 4 किलो बीज काफी होते हैं। जिन्हें खेत में उगाने से पहले पानी में आधे घंटे तक भिगो लेना चाहिए। इसके लगभग 80 से 85 फीसदी बीज ही अंकुरित हो पाते हैं।

करेले के बीज को खेत में दो तरीके से लगा सकते हैं. जिसमें पहले तरीके से पौधे को समतल पर 4 से 5 फिट की दूरी पर नालीनुमा क्यारियां बनाकर लगा सकते हैं । जबकि दूसरे तरीके में इसे जमीन में गड्डा खोदकर लगाया जाता है. इसके गड्डे 4 से 5 फिट की दूरी पर एक फिट चोडे और गहरे बनाते हैं।

पौधे की सिंचाई

करेले के पौधे को पानी की ज्यादा जरूरत तब नही होती जब इसे सर्दी और बारिश के मौसम में उगाया जाता है। लेकिन गर्मी के मौसम में इसे सिंचाई की जरूरत होती है। सर्दियों के मौसम में इसके पौधे को 10 से 15 दिन बाद पानी देना चाहिए. जबकि गर्मी के मौसम में 5 दिन के अंतराल में पानी देना उचित होता है।

जब पौधे पर फूल या फल बन रहे हों तब खेत में नमी बनी रहनी चाहिए ।इसके लिए पौधे को आवश्यकता के अनुसार पानी देना चाहिए। अगर फल बनते वक्त पौधे को नमी की मात्रा पर्याप्त नही मिल पाएगी तो फलों का आकार छोटा रहा जाएगा । और पैदावार पर भी इसका असर देखने को मिलेगा।

उर्वरक की मात्रा

करेले के पौधे या बीज को खेत में लगाने से पहले खेत में उर्वरक की मात्रा पर्याप्त होनी चाहिए। इसके लिए खेत में पहली जुताई के बाद 10 से 12 गाड़ी गोबर की खाद प्रति एकड के हिसाब से देनी चाहिए।

गोबर खाद की जगह कम्पोस्ट खाद का भी किसान भाई इस्तेमाल कर सकते हैं। उसके बाद खेत में बीज या पौधे के रोपण के लिए बनाई गई नाली या गड्डों में 200 किलो यूरिया, 300 किलो सुपर फास्फेट और 90 किलो पोटाश की मात्रा को अच्छे से मिलाकर प्रति हेक्टेयर के हिसाब से डालकर मिट्टी में अच्छे से मिला दें।

खरपतवार नियंत्रण और पौधे की देखभाल:-

करेले की खेती में खरपतवार नियंत्रण जरूरी होता है। खरपतवार नियंत्रण कर पौधों से अच्छी फसल ली जा सकती है। जिससे किसान भाइयों को अच्छा मुनाफा होता है और पौधों पर लगने वाले रोग की वजह से पैदावार में होने वाले नुक्सान से भी बचा जा सकता है।

करेले की खेती में खरपतवार नियंत्रण नीलाई और गुड़ाई के माध्यम से की जाती है। पौधे को खेत में लगाने के लगभग 25 दिन बाद पहली नीलाई गुड़ाई कर उसकी खरपतवार निकाल देनी चाहिए। उसके बाद अगली नीलाई गुड़ाई 20 दिन के अंतराल बाद कर देनी चाहिए ।

करेले के पौधे पर लगने वाले रोग

करेले के पौधे पर कई तरह के रोग लगते हैं जो कीटों और वायरस की वजह से लगते हैं। पौधों पर इन रोग के लग जाने से पैदावार पर बहुत ज्यादा असर देखने को मिलता है।

कीटों के कारण लगने वाले रोग

कीटों के कारण पौधों पर कई तरह के रोग लगते है। किट के द्वारा लगने वाले रोग ज्यादातर पत्तियों और फूलों को ज्यादा प्रभावित करते हैं। इस रोग के किट पौधे की पतियों को खाकर उन्हें नष्ट कर देते हैं। जबकि इनकी सुंडी पौधे की जड़ों को खाकर उन्हें खत्म कर देती है। इसके बचाव के लिए पौधे पर कार्बारिल दवा का छिडकाव करना चाहिए।

1) माहू:-

माहू रोग के किट पौधों पर समूह में पाए जाते है। इनका आकर छोटा और रंग हरा पीला होता है। ये किट पौधे की पत्तियों और तने का रस चूसकर उन्हें नष्ट कर देते हैं। ये रोग पौधे पर ज्यादातर गर्मियों के मौसम में देखने को मिलता है। इस रोग की रोकथाम के लिए पौधों पर साइपरमेथ्रिन की उचित मात्रा का छिडकाव करना चाहिए।

2) सुंडी रोग:-

पौधे को ये रोग सबसे ज्यादा नुक्सान पहुँचाता है. जिसको कट वर्म के नाम से भी जाना जाता है। इस किट की सुंडी दिन के वक्त मिट्टी में रहती हैं. लेकिन रात के वक्त पौधे के तने को मिट्टी की सतह के पास से काट देती है। जिससे पूरा पौधा नष्ट हो जाता है। इस रोग से बचाव के लिए पौधे को खेत में लगाने से पहले जुताई के वक्त खेत में एल्ड्रिन धूल या हेप्टा क्लोर धूल का छिड़काव कर मिट्टी को उपचारित कर लेना चाहिए।

वायरस की वजह से लगने वाले रोग

करेले के पौधे पर वायरसों की वजह से भी कई तरह के रोग होते हैं जो पौधे की पत्तियों और जड़ों को नुक्सान पहुँचाते हैं जिनसे पौधे खराब हो सकते है ।

1) पाउडरी मिल्ड्यू:-

पौधों पर ये रोग एरीसाइफी सिकोरेसिएटम नामक वायरस की वजह से लगता है। इस रोग के लगने पर पौधे की पत्तियों पर सफ़ेद रंग दिखाई देने लगता है। जिसके कुछ दिन बाद पत्तियां पीली पड़कर नष्ट हो जाती है। इस रोग की रोकथाम के लिए पौधों पर कैथरीन का उचित मात्रा में छिडकाव करना चाहिए।

2) एन्थ्रेक्नोज रोग:-

पौधों पर एन्थ्रेक्नोज रोग सबसे ज्यादा पाया जाता हैं । इस रोग के लगने से पत्तियों पर काले रंग के धब्बे बनने लगते है। जो धीरे धीरे पूरी पत्तियों को नष्ट कर देते हैं. जिससे पौधे को सूर्य के प्रकाश की उचित मात्रा ना मील पाने के कारण उसकी वृद्धि रुक जाती है। इस रोग की रोकथाम के लिए पौधों पर कॉपर आक्सीक्लोराइड या डायमिथोएट की उचित मात्रा का छिडकाव पौधों पर करना चाहिए।

फसल की तुड़ाई

करेले की फसल तीन से चार महीने की होती है। जो तीसरे महीने में फसल देना शुरू कर देती है। करेले के फलों का रंग और आकार जब अच्छा दिखाई देने लगे तभी उसे तोड़ लेना चाहिए. करेले के फलों को डंठल से 2 से 3 सेंटीमीटर की दूरी से तोड़ना चाहिए. इससे फल ज्यादा दिनों तक ताज़ा दिखाई देता है। करेले की सप्ताह में दो बार तुड़ाई करनी चाहिए ।

पैदावार और लाभ

करेले की फसल छोटे टाइम की पैदावार होने की वजह से किसान भाई इसके बाद अपनी दूसरी फसल की पैदावार आसानी से ले सकता है । करेले की अलग अलग किस्म की पैदावार प्रति एकड़ में 40 से 60 क्विंटल तक हो जाती है. जिनका बाज़ार में थोक भाव 10 से 15 रूपये किलो मिलता है. जिससे किसान भाई एक बार में 70 हज़ार से एक लाख तक की कमाई कर सकते हैं ।

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